ऐ मेरे दो
जहान के मालिक
किस मस्जीद से
तुझे अजान दूँ
कब सुनेगा
फ़रियाद मेरी
कब होगी
मुराद पूरी
बना के मुझे
क्यु कर भूला
खाने को ठोकरे
किसके सहारे छोड़ा
कहे ऐ बुजुर्ग
मेरे मुझ से
तू है प्यासा
इबादत-ऐ-दिल के
कमी क्या थी
मेरी इबादत में
इतना तो बता
जो छोड़ा मझधार में
फिर पलटकर पूछूँगा
तुझसे क़यामत पर
क्यु कर मुक़दर
मेरा है मझधार पर
इल्ज़ाम तुझ पर
धरूँगा मैं ज़रूर
ये दोष तेरा तो
सज़ा सूनाउगा ज़रूर
तुज्हे भी अकेला
ही जीना होगा
और मिल्कीयत तेरी
दो जहान होगा
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enthusism
Friday, October 22, 2010
Monday, October 4, 2010
दर्द-ऐ-तड़प
ऐसे ही जिंदगी कटती रही,
अपने आप से शिकायते होती रही.
तेरा कसूर क्या इस में,
क्यु कर नसीबो की डोर टूटती रही.
अब सोच के हासिल भी नहीं,
दिल की मुराद पूरी कब होती रही.
अपनी ज़ुतजु में जीना है,
आरज़ू जिंदगी की छूटती रही.
मौत भी नहीं आती है,
ये तेरी तरह खिलवाड़ करती रही.
बता ऐ हम नफज़ मेरे,
मुझ से कौन सी कमी बाकी रही.
ना काबिल-ऐ-दुनिया मेरी,
मुझ पे यू बोझ बनती रही.
ये तोहफा तेरा कबूल है,
मेरी आहे युही मगर जलती रही.
तेरा दिल भी तरसेगा कभी,
मेरी दर्द-ऐ-तड़प यह कहती रही.
सदके तेरे ये जिंदगी है,
मौत पाशा-ऐ-आगोश से लिपटी रही.
अपने आप से शिकायते होती रही.
तेरा कसूर क्या इस में,
क्यु कर नसीबो की डोर टूटती रही.
अब सोच के हासिल भी नहीं,
दिल की मुराद पूरी कब होती रही.
अपनी ज़ुतजु में जीना है,
आरज़ू जिंदगी की छूटती रही.
मौत भी नहीं आती है,
ये तेरी तरह खिलवाड़ करती रही.
बता ऐ हम नफज़ मेरे,
मुझ से कौन सी कमी बाकी रही.
ना काबिल-ऐ-दुनिया मेरी,
मुझ पे यू बोझ बनती रही.
ये तोहफा तेरा कबूल है,
मेरी आहे युही मगर जलती रही.
तेरा दिल भी तरसेगा कभी,
मेरी दर्द-ऐ-तड़प यह कहती रही.
सदके तेरे ये जिंदगी है,
मौत पाशा-ऐ-आगोश से लिपटी रही.
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