इक ग़ज़ल उस पे लिखू, दिल का तकाजा है बहुत,
इन दिनों खुद से बिचड, जाने का डर है बहुत.
रात हो, दिन हो, गफलत हो की बेदारी हो,
उसको देखा तो नहीं है सोचा है बहुत.
तशनगी के भी मुकामत है क्या क्या, यानी,
कभी दरया नहीं काफी, कभी कतरा भी है बहुत.
मेरे हाथो की लकीरों के इजाफे है गवाह,
'पाशा' पत्थरो की तरह खुद को तराशा है बहुत.
अच्छी गजल,वाह वाह
ReplyDeletepasha bhai. badhiya hai.
ReplyDeleteतशनगी के भी मुकामत है क्या क्या, यानी,
कभी दरया नहीं काफी, कभी कतरा भी है बहुत.
yeh lines kafi sundar hai