दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई,
जैसे एहसान उतारता है कोई.
आईना देख के तसल्ली हुई हम को,
इस घर में जानता है कोई.
पक गया है शज़र पे फल शायद,
फिर से पत्थर उछलता है कोई.
फिर नज़र में लहू के छींटे है,
तुम को शायद मुघालता है कोई.
देर से गूँजते हैं सन्नाटे "पाशा",
जैसे हम को पुकारता है कोई.
kya bat hai bhai. excellent alfaz. keep it up
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