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Monday, April 19, 2010

वक़्त

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई,
जैसे एहसान उतारता है कोई.

आईना देख के तसल्ली हुई हम को,
इस घर में जानता है कोई.

पक गया है शज़र पे फल शायद,
फिर से पत्थर उछलता है कोई.

फिर नज़र में लहू के छींटे है,
तुम को शायद मुघालता है कोई.

देर से गूँजते हैं सन्नाटे "पाशा",
जैसे हम को पुकारता है कोई.

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