बना गुलाब तो काँटे चुभा गया एक शख्स,
हुआ चिराग तो घर ही जला गया इक शख्स.
तमाम रंग मेरे और सारे ख़्वाब मेरे,
फ़साना कह कर फ़साना बना गया इक शख्स.
मै किस हवा में उडूँ किस फ़ज़ा में लहराऊ,
दुखों के जाल हरसू बिछा गया इक शख्स.
पलट सकूँ मैं ना आगे बढ़ सकूँ जिस पर,
मुझे ये कौन से रास्ते लगा गया इक शख्स.
मुहब्बतें भी अजीब उस की नफरतें भी कमाल,
मेरी तरह का ही मुझ में समा गया इक शख्स.
वो माहताब था मरहम बादस्त आया था,
मगर कुछ और सिवा दिल दुखा गया इक शख्स.
खुला ये राज़ के आईनाखाना है दुनिया,
और इस में मुझ को 'पाशा' तमाशा बना गया इक शख्स.
आप की इस ग़ज़ल में विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं।
ReplyDeleteis gazal par vyakt kiye hue manoj kumar sahab ke vichar se mai sahmat hu
ReplyDelete